मध्य स्वर्णिम प्रसंगवश: सुनील दत्त तिवारी (मो. 9713289999)
दरअसल,देश की द ग्रैंड ओल्ड पार्टी, कांग्रेस भी इन दिनों इसी दौर से गुजर रही है। कांग्रेस के क्षेत्रीय क्षत्रपों ने कभी संघर्ष नहीं किया और विकल्प के अभाव में जनता उन्हें उन्हें चुनाव दर चुनाव जीत दिलाती चली गई। 2014 के बाद से सत्ता से दूर रही कांग्रेस में अब सत्ता प्राप्ति के लिए अजीब छटपटाहट दिख रही है। तरह -तरह के राजनैतिक आरोप-प्रत्यारोप के बाद अब गांधी परिवार को लगता है कि असली लड़ाई मैदान की है,जो कांग्रेस ने अभी तक लड़ी नहीं। न संगठन,न समर्पित कार्यकर्ताओं की फौज,न अनुशासन और न ही पार्टी के प्रति त्याग करने वाले नेता। जाहिर है कांग्रेस में पिछले चार दशकों में कबीलियाई संस्कृति ने जन्म लिया है। पार्टी के अंदर क्षेत्रीय नेताओं का बर्चस्व बढ़ा जो कांग्रेस नहीं व्यक्ति के लिए समर्पित थे। पूरे देश नहीं सिर्फ मध्यप्रदेश की ही बात करें तो तत्कालीन दौर में दिग्विजय सिंह,ज्योतिरादित्य सिंधिया,कमलनाथ,सुरेश पचौरी,अजय सिंह राहुल,सुभाष यादव जैसे नेता अपने अपने कबीले में किसी दूसरे की सेंधमारी को बर्दाश्त नहीं करते थे। 2008 का विधानसभा चुनाव याद कीजिए,तब सत्ता विरोधी लहर के कारण माना जा रहा था कि कांग्रेस को जीत तश्तरी में मिलने वाली है। लेकिन,आरोप है की तात्कालीन प्रदेश अध्यक्ष सुरेश पचौरी ने जानबूझकर कमजोर प्रत्याशी मैदान में उतारे और पार्टी हार गई। उसके बाद 5 साल संगठन निष्क्रिय पड़ा रहा। फिर 2011 में आदिवासी कार्ड खेलते हुए कांतिलाल भूरिया को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया ताकि पार्टी का उद्धार हो। लेकिन संगठन की दृष्टि से कम तजुर्बेकार भूरिया कुछ नेताओं की हाथ की कठपुतली बने और संगठन हाशिए पर चला गया। परिणाम 2013 का विधानसभा चुनाव भी कांग्रेस हार गई। 2018 की तैयारी के लिए युवा तुर्क के रूप में पूर्व केंद्रीय मंत्री रहे अरुण यादव को 2014 में कमान दी गई। अरुण निस्संदेह संगठन के लिए उपयोगी हो रहे थे कि अचानक पैराशूट लैंडिंग से सभी के नाथ ,कमलनाथ को आलाकमान ने प्रदेश में भेज दिया। 2018 के चुनाव में भी जबरदस्त एंटीइंकम्बैंसी धरातल पर थी। कमलनाथ को प्रदेश की राजनीति का पहला अवसर था,आलाकमान ने फ्री हैंड दिया बावजूद प्रदेश में कांग्रेस को सिर्फ 113 सीटें मिली वो भी जनता की वजह से,पार्टी का कोई अतिरिक्त प्रयास कदापि नहीं था। सरकार बनी भी,सरकार गिरी भी लेकिन कार्यकर्ता उपेक्षित ही रहा। 2023 के आते आते कमलनाथ, प्रदेश कांग्रेस के नाथ तो बने रहे लेकिन संगठनात्मक मायनों में कांग्रेस अनाथ हो गई। 2023 का चुनाव हारने के बाद नाथ हाशिए पर आ गए और अब पटवारी,प्रदेश कांग्रेस की जमीन पर संघर्ष कर रहे हैं। इन सभी के बीच अब पहली बार कांग्रेस वो करने जा रही है,जो उसे एक दशक पहले कर लेना चाहिए था। अब कार्यकर्ताओं को जिम्मेदारी देकर संगठन को जीवित करने की कोशिश हो रही है। वोट चोरी जैसे जुमलों से निकलकर कांग्रेस एक अच्छा प्रयोग करने जा रही है,जो मेरी नजर में मील का पत्थर साबित हो सकता है। हालांकि, अभी भी उसका मुकाबला भारतीय जनता पार्टी के बेहद मजबूत काडर से होगा।खबर है कि कांग्रेस ने ‘बूथ रक्षकों’ की नियुक्ति के लिए एक ‘पायलट परियोजना’ शुरू की है। इसका मकसद जमीनी स्तर पर पार्टी कार्यकर्ताओं को ‘मतदाता सूची में अनियमितताओं’ का पता लगाने और रिपोर्ट करने के लिए प्रशिक्षित करना है। स्थानीय नेताओं को चुनावी प्रक्रिया में फॉर्म 6, 7 और 8 के इस्तेमाल की ट्रेनिंग दी जा रही है। यह एक दो-आयामी दृष्टिकोण है ,स्थानीय नेतृत्व को ट्रेनिंग देना और वोटर में अनियमितताओं, नाम हटाने और जोडऩे पर नजर रखना। ये शायद कांग्रेस में पहली बार होगा नहीं तो, मतगणना के समय क्या क्या करना है ? कांग्रेस के बीएलए को ये भी नहीं पता होता और इसी का फायदा भाजपा को मिलता रहा है। कुल मिलाकर पहली बार कांग्रेस अपने कार्यकर्ताओं को जोडऩे का प्रोग्राम बना रही है,जो स्वस्थ लोकतंत्र के लिहाज से बेहतर है। इसमें भी यदि कबीलाई पठ्ठावाद नहीं चले तो कम से कम अब कांग्रेसी जमीन पर नजर तो आएंगे। अन्यथा तो कांग्रेस के बचे खुचे जमीनी कार्यकर्ता जावेद अख्तर की इन्हीं पंक्तियों को गुनगुना रहे हैं-
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